My Uncertainty
मैं रोज़ डरता हूँ और मरता हूँ अपने ही उम्मीदों से। ये ख्याल आता है कि मैं हूँ कौन, वो जो जीना चाहता है या वो जिसे मरना है।
और तब कहीं बादलों के ओट से झांकती हुई उम्मीद कहती है, तुम्हें जीना ही होगा।
और मैं कहीं से हिम्मत जुटाता हूँ फिर से जीने के लिए, क्योंकि ज़िन्दगी से हारना इतना आसान तो नहीं।
चलता हूँ, रुकता हूँ और फिर देखता हूँ कि मैं चला हूँ कितना दूर, शायद कुछ अटकलें लगाऊँ की कितना बाकी है चलना। जब किसी से पूछता हूँ की अभी कितना दूर है तो लोग कहते हैं कि अभी तो बहुत दूर है। और ये मेरे लिए समझना मुश्किल हो जाता है की बहुत दूर न जाने कितना दूर होता है।
शायद चलूँगा तो पता चलेगा की मैं ज़िन्दा हूँ।
और खुद से एक और सवाल की क्या मैं ज़िन्दगी को जी रहा हूँ या फिर ज़िन्दगी मुझे जी रही है।
इसी उधेड़बुन में सुबह हो जाती है।
ये कितना कठिन है जानना की हम क्यों जी रहें है। आखिर इसका मकसद क्या है। हमें इस दुनिया में क्यों भेजा गया होगा। क्या इसका मकसद काम करना, भोजन करना, और फिर सो जाना है।
हमें इस श्रृष्टि के निर्माता ने यहाँ क्यों भेजा हैं? क्या उसका कोई उद्देश्य है, जिसको हम या तो समझ नहीं पाते हैं या फिर काम करना, भोजन करना, और फिर सो जाना ही है। बड़ा मुश्किल सवाल लगता है मुझे। कुछ बड़े लोगों का कहना है की प्रभु, खुदा, परमेश्वर, अल्लाह, भगवान को पाना ही हमारी मंजिल है। कोई कहता है की ये हमारे भीतर ही हैं तो फिर हमें ढूढ़ना कहाँ है।
अजीबोगरीब नियम है यहाँ के।
— Sahil Hasan