Mirza Ghalib Ki Famous Shayari । top 20 shayari of the Mirza Saheb

Mirza Ghalib Ki Famous Shayari

दशकों पहले एक शायर ने यह सवाल पूछा था, ‘न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता’ इस सवाल का जवाब अभी तक दे पाना किसी के लिए मुमकिन नहीं हो सका।

27 दिसंबर 1797 को आगरा में जन्में मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग ख़ान को समझना किसी आम शख्स के लिए इतना आसाना नहीं है, लेकिन दिल्ली के बल्लीमारान के ‘चाचा ग़ालिब’ के शेर का मज़ा उठाने के लिए किसी ऊर्दू या फारसी विश्वविधायल में जाने की जरूरत नहीं है। हालांकि, कभी-कभी उनके शेर की गहराई तक उतरना बड़े-बड़े ऊर्दू के जानकारों के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो जाती है।

उनका हर शेर किसी सोने की असर्फी की कीमत और चमक से कम नहीं है। आइए आज ग़ालिब के कुछ ऐसे शेरों को याद करें, जिसमें मोहब्बत की खुशबू है, सोच का समंदर है, बिछड़ने का ग़म है, साक़ी से कुछ इल्तिज़ा है और ऊपर वाले से कुछ सवालात भी हैं।

Mirza Ghalib Ki Famous Shayari

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे

तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं

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