सही और गलत जरूरतें | Anwarul Hasan

कॉफ़ी का मग अनवर के सामने रखते हुए सदफ ने एक गहरी साँस ली और सोफे पर बैठ गयी।
“तुम कॉफ़ी नहीं पी रही हो क्या?” सदफ को कॉफ़ी बहुत पसंद था और इस तरह से हाथ पर हाथ रखे बैठे देखकर अनवर को बड़ी हैरानी हुयी।
“कॉफ़ी पिने का मन नहीं कर रहा है।” सदफ ने बेज़ार से लहजे में कही और आगे कुछ कहने से रुक गयी।
“जुबेर और सुहेल घर में नहीं है क्या?” उसने सदफ का ध्यान बटाने के लिए पूछा।
“नहीं, वे दोनों अपने दोस्त के घर गए हैं।” सदफ ने अभी भी उसी बेज़ारी से जवाब दिया।

अनवर को यह शांत सा माहौल अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए वह बाहर जाने का इरादा करने लगा। मगर सदफ भला उसे कहाँ बाहर जाने देने वाली थी। वही पुरानी बातों, पुराने झगड़ों और पुराने किस्सों को लेकर बैठ गयी। अनवर को कभी – कभी इन बातों से बहुत चिड़ होती थी। वह उसे समझाने लगा मगर वह समझने वाली कहाँ थी। इधर – उधर की बातें बनाती रही और अनवर उसे प्यार से समझाता रहा। फिर वह ख़ामोशी से सुनता रहा।

ज़रीना बेगम और निज़ाम अहमद को अल्लाह ने एक बेटा औ एक बेटी दिया था। बेटी जो की बड़ी थी उसका नाम ज़रीना बेगम ने रुबीना रखा था और निज़ाम साहब ने बेटे का नाम अनवर रखा जो की रुबीना से सात साल छोटा था। बड़ी मन्नतों के बाद अनवर हुआ था। ज़रीना बेगम अनवर की शादी के तुरंत बाद ही अल्लाह को प्यारी हो गयी। अनवर के शादी से बारह साल पहले अब्बा का इन्तिकाल हो गया था। अब घर में सदफ, अनवर और उनके बच्चे ही थे।

रुबीना आपा एक आम सी घरेलू औरत थी। वह अपनी जिम्मेदारियों में ही हमेशा लगी रहती थी। वह कभी – कभी अपने भाई अनवर के मुहब्बत में चली आती तो सदफ को बहुत बुरा लगता था। मगर वह सभी के सामने कुछ कह नहीं सकती थी इस लिए चुप रहती थी। लेकिन उनका आना सदफ को परेशान कर देता था। बाद में जब वह चली जाती तो सदफ, अनवर से उनकी बुराई करती, उनके बारे में गलत बोलती। अनवर किसी तरह से उसे समझाता।

काफी दिनों बाद रुबीना आपा सदफ और अनवर के पास आई हुयी थीं। इन दिनों सदफ की बहन सफीना भी आई हुई थी। रमजान का महिना शुरू हो गया था। एक दिन सफीना ने बिना किसी परेशानी या बीमारी के रोजा छोड़ दिया तो रुबीना आपा ने उसे नसीहतों के पुल बाँध दिए। उन्होंने उसे खूब खरी – खोटी सुनाई।

“सफीना तुमने रोज़ा छोड़कर अच्छा नहीं किया। तुम्हें कोई बीमारी भी नहीं है। फिर भी तुमने यह गुनाह किया है।”

रुबीना आपा कहती जा रही थी और सदफ का गुस्सा आसमान छू रहा था। जब उसने देखा कि रुबीना आपा किसी तरह से भी रुकने का नाम नहीं ले रही है तो वह बीच में बोल पड़ी,
“आपको क्या पता कि इसे कितना बुखार है।”
“ओह! तुम सही कह रही हो सदफ? मेरे कहने का मतलब है कि थोड़ा – बहुत बुखार ऐसा नहीं है कि जिसकी वजह से रोजा छोड़ जाए।” वह और कुछ भी कह रही थी मगर सदफ अपनी कह कर चली गई।

कुछ दिन बाद, ईद से पहले ही रुबीना आपा अपने ससुराल चली गई। सफीना अभी तक बहन के पास थी। सदफ ने एक दिन अनवर को खूब सुनाया। वह अनवर के सात नस्लों को कोसने लगी, “हमारे लिए कुछ नहीं छोड़ा। सब कुछ अपने बेटियों के नाम कर गए। और हम यहां फाकों की सी हालत में आ गए हैं।”

और अनवर उसकी बिना मतलब की बातों को सुनकर, सर पकड़ कर बैठ गया।

सफीना की शादी के लिए तोहफे का इंतजाम सदफ के लिए बहुत बड़ा परेशानी बन गया। बड़ी आपा अच्छा खासा सोने का सेट दे रही थी। मामू – मामी भी बहुत कुछ तोहफे में दे रहे थे। और भी सभी रिश्तेदार कुछ न कुछ दे रहे थे। ऐसे में सदफ के पास देने को कुछ नहीं था। जो था वह इतना कीमती नहीं था या लेटेस्ट नहीं था। यह बात उसके लिए शर्मिंदगी वाली बन गई। उसने अनवर से कहा तो वह बोला, “तुम्हारे पास ठीक-ठाक जेवर है तो सही, उन्हीं में से कुछ दे दो।” अनवर की बात सुन कर वह और उदास हो गयी।

“यह क्या बात हुई, मेरे पास जितने जेवर है सफीना ने वह सारे जेवर देख रखे हैं। अगर मैं पुराने जेवर देती हूँ तो वह क्या सोचेगी की, आपा ने पुराने जेवर दे दिए।”

काफी मन मुटाव के बाद अनवर को उसकी बात माननी पड़ी। उसने फ्लैट की किस्त के पैसे सदफ के बहन सफीना के जेवर खरीदने के लिए दे दिया। अनवर का सही समय पर क़िस्त देने का रिकॉर्ड सही था। वह हर महीने वक्त पर क़िस्त जमा कर दिया करता था। इसलिए उसे इस महीने बैंक ने माफ कर दिया और इस तरह से बात कुछ बन गई। मगर सदफ को क्या फर्क पड़ता, उसे तो पैसों से मतलब था। जो उसे मिल गए थे।

एक दिन घर में झगड़ा शुरू हो गया। सदफ ने पुरानी बातों का फिर से बखेड़ा शुरू कर दिया। अनवर के सब्र का पैमाना भर गया। वह भी जवाब देने लगा। तभी अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। सुहेल गेट खोलने गया।

“आप लोग प्लीज अपना मूड ठीक कर ले।” तेरह साल का जुबेर ने कहा जो उनके पास ही अपनी धुन में बैठा गेम खेल रहा था।

अनवर एकदम से शर्मिंदा हो गया। उसे अपना बचपन, लड़कपन और जवानी याद आई। उसे अम्मा – अब्बा का घर, और घर का सुकून भरा माहौल सब कुछ याद आ रहा था। उसके दिल में एक टिस सी उठी।

अनवर अपने मन में सोचने लगा, यह मैं अपने बच्चों को क्या दे रहा हूं। बाहर से रुबीना आपा और उनके हस्बैंड रियाज़ भाई की आवाज आ रही थी। अनवर जल्दी से बाहर आया। उसने रियाज़ भाई को सलाम किया और अंदर ले आया।

रियाज़ भाई बताने लगे, “असल में हम समीरा से मिलने गए थे। समीरा की सास अपने बड़े लड़के के पास रहने गयी हैं। और समीरा के पैर में मोच आ गई थी तो हम उससे मिलने आ गए। उसका घर तुम्हारे घर के पास ही है, सो लगे हाथ हम तुम्हारे घर पास भी आ गए। और हम बिना खबर किया आ गए।” रियाज़ भाई सोफे पर बैठते हुए बोले।

कोई बात नहीं रियाज़ भाई, बहुत अच्छा किया आपने जो आप इधर आ गए। यह तो आपका ही घर है। खबर करने की क्या जरूरत है। अनवर हंसता हुआ बोला।

फिर वही इधर-उधर की बातों में लग गए। सदफ चाय बना लायी और वहीं बैठकर समीना आपा से बातें करने लगी। आज जाने क्यों वह सही ढंग से बात कर रही थी। बातों में ज्यादा बनावट नहीं था।

अनवर एक बात बताओ तुम अपने फ्लैट की किस्त इस महीने क्यों नहीं जमा कर सके। बुरा मत मानना बैंक का मैनेजर मेरे पास आता रहता है। उसने यूं ही बातों – बातों में यह बात कह दी थी। कुछ मसला है क्या? रियाज़ भाई ने पूछा।

“हाँ रियाज़ भाई पिछले महीने कुछ ज्यादा ही खर्च हो गया।” अनवर बोला।

रियाज़ भाई पूछते ही रह गए की क्या खर्चा हुआ था मगर अनवर घर की बदनामी का सोचकर चुप ही रहा। रियाज़ भाई फिर इधर-उधर की बातें करने लगे।

फिर तकरीबन दो घंटे के बाद रियाज़ भाई रुबीना आपा को लेकर अनवर को समझा – बुझा कर वापस आ गए। रियाज़ भाई वापस तो चले गए, मगर अनवर को बातों ही बातों में एक ऐसी बात बता गए जो देर तक उसके कानों में गूंजती रही।

“बिना मतलब के खर्चें से इंसान उसी वक्त बच सकता है जब वह अपनी तमन्नाओं को काबू में रखें।”

“हां रियाज़ भाई! आप सही कहते हैं मगर सदफ जैसी औरतों को कौन समझाए जो अपने जिदें हर हाल में पूरी करा कर रहती हैं।” वह सोचने लगा

sahi aur galat jaruraten story by anwarul hasan lovhind

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