Anjaam by Sahil Hasan
ये एक ऐसी मुहब्बत की कहानी है जिसमें एक सोच है पाने की, हम सभी कभी न कभी अपनी जिंदगी में किसी न किसी को पसंद करते और कभी ये पसंद से ज्यादा हमारी जिंदगी बन जाती है और फिर हम उस जिंदगी को पाने की कोशिश में लग जाते है ये सोचे बिना की आगे क्या होगा। पर अंत तो होना ही है और ये अंत है मौत या फिर उस जैसे एहसास से। सब कुछ रियल लगता है, चेहरे सच्चे लगते हैं, पर वो इन्सान ही जनता है की सच्चाई क्या है। कभी कभी हमें लगता है जो सच है जोकि वास्तव में एक झूठ होता है, एक छलावा।
ये कहानी भी आप को कुछ इसी तरह के अनुभव कराती है बिल्कुल ही आम इंसानों की भाषा में। और धीरे – धीरे आप के दिल को भी छू लेगी। खुदा ने हमें इंसान बनाया और हमारे अंदर जज़्बात पैदा किए। कभी अगर हम जिसे चाहते है वो दुखी है तो हम भी दुखी होते है। वह अगर मुस्कुराता है तो हमारे भी होटों पर मुस्कुराहट आ जाती है। यह अपना और पराए का भाव ही तो है। यह कहानी कुछ इसी तरह के भाव से भरा है।
Anjaam by Sahil Hasan | Chapter 1 | अहमद की मौत
आज सुबह जब मुझे यह खबर मिली कि अहमद अब नहीं रहा तो ऐसा लगा जैसे कि मैं भी नहीं रहा। अभी उसकी उम्र ही क्या थी, केवल अठाईस साल। वह बहुत ही नेक दिल और मदद करने वाला था। मैं कोई लेखक नहीं हूं, पर आज मैं अपने मित्र के ज़िन्दगी के बारे में उसकी कहानी लिखना चाहता हूं।
अहमद मेरे बचपन का दोस्त था। जब पहली बार मैंने उसे स्कूल में देखा था तो वह कक्षा में सबसे पीछे खड़ा रो रहा था। सफेद कमीज़ और नीले रंग का पैंट पहने हुए था। आज ही उसका स्कूल में दाखिला हुआ था। रोते हुए वह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं सभी बच्चों के साथ खड़ा उसे देख रहा था।
जब कोई आगे नहीं बढ़ा उसे चुप कराने तो मैं आगे अपने आप ही बढ़ गया। मैंने उसे अपनी मिठाई देते हुए कहा था कि क्या हम दोनों फ्रेंड बन सकते है? न जाने क्यों वह हंस पड़ा, और हम दोस्त बन गए। उसका घर मेरे घर से कुछ दूरी पर था। हम कभी पहले साथ में नहीं खेलते थे। लेकिन अब हम दोनों हर समय साथ में ही रहते थे।
उसे तितलियां बहुत पसंद थी। वह उन्हें पकड़ता और मुझसे कहता, देखो इनके तरह – तरह के रंग। हर तितली के पास इसके पसंद के रंग का कपड़ा है। रंग बिरंगी तितलियां। शायद तितलियों का रंग – बिरंगी होना और उनका एक अंदाज में उड़ जाना और फिर कुछ नए फूलों को ढूंढना, उन पर बैठना और फिर से उड़ जाना किसी और फूल की तलाश में। कितनी अलग बात है, जिनकी तलाश शायद कभी खत्म न होगी। और अगर खत्म होती है तो ये उनका अंत होता है।
तो शायद जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है, हम हमेशा किसी तलाश में होते है और अगर वो मिल जाता है तो किसी और के तलाश में गुम हो जाते है। जब हमारे पास कोई मकसद नहीं होता है तो फिर जीने में आनंद नहीं आता है, जिंदगी जैसे बोझ बन जाती है, कुछ भी सुझायी नहीं देता है, लगता है कि यही अंत है। जिंदगी वीरान हो जाती है। जीने की उम्मीद खत्म हो जाती है। और लगता है जैसे अब मरने के सिवा और कोई मंजिल नहीं है।
उसका घर गांव से दूर था, बड़ी सड़क के पास। उसे ज्यादा बाहर घूमना पसंद नहीं था। वह अपने घर और बगीचे में घूमता रहता। उसे फूलों से बहुत प्यार था। अहमद और उसकी बहन जैनब हमेशा कोई ना कोई फूलों के पौधें लगा रहे होते थे। गुलाब का फूल उन्हें बहुत पसंद था पर जब भी वो गुलाब के पौधे लगाते वो सुख जाता। बहुत कोशिश के बाद उन्होंने एक गुलाब का पौधा बचा ही लिया। फिर दोनों भाई – बहन के खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
कभी – कभी मधुमक्खी के छत्ते को देर तक देखता रहता। कहता कि ये कितना मेहनत करती है। दूर – दूर तक जाती है हमारे लिए शहद लाने के लिए। पर क्या इसके बदले में उन्हें हम कुछ देते है या क्या हम इनसे कुछ सीख पाते है, शायद नहीं।
वह हमेशा दुःख ही उठाता रहा। कभी पढ़ने के लिए तो कभी प्यार के लिए।
Anjaam by Sahil Hasan | Chapter 2 | अहमद का दिल्ली के लिए रवानगी
फरवरी महीने के अतिंम दिन चल रहे थे। हर तरफ पेड़ों से पत्ते गिरे हुए थे। हमारे यहाँ इसे बसंत ऋतु भी कहते है। कुछ पौधें फूलों से भरे हुए थे। लाल, नीले, पीले, सफेद फूलों को देखकर दिल खुश हो जाता और होटों पर ऐसे ही मुस्कुराहट आ जाती। दिल मचल सा जाता। बिना बरसात के मौसम ही बारिश हो गई और फिर तो हर तरफ एक अलग ही रंग से लोग रंग गए।
खूबसूरती का ये आलम था कि हर किसी के होटों पे एक धुन सा था कहीं। ऐसे में अहमद का दिल बेकरार सा हो रहा था। कुछ दिन पहले ही वो दिल्ली से घर आया था। अहमद दिल्ली में रहता है और एक मल्टीनेशनल सॉफ्टवेयर कंपनी में जॉब करता है। वह एक छोटे से गांव का रहने वाला है। उसका गांव पेड़ पौधों से भरा हुआ है। हर तरफ हरियाली है। उसे अपना गांव बहुत पसंद है।
आज सुबह जब अहमद सोकर उठा तो उसने दिल्ली जाने का इरादा कर लिया।
मम्मी ने कहा, “इतनी जल्दी में जाना था तो आया ही क्यों था। हर काम में जल्दी, अरे मैं पूछती हूँ की कुछ दिन और रुक जाने में कौन सा पहाड़ टूट जायेगा।” फिर वो खुद से ही धीरे-धीरे कहने लगी, जाने कब इसको आराम नसीब होगा।
अहमद चुपके से माँ के पास आकर उन्हें देखने लगा फिर बोला, “माँ पूरे एक हफ्ता रुका हूँ और आप कह रहीं हैं की जल्दी जा रहा हूँ। अगर काम नहीं करूँगा तो कंपनी वाले सैलरी नहीं देने वाले। फिर मुश्किल हो जायेगा रहना शहर में।”
“हाँ तो कौन कह रहा है शहर में रहने को। यहाँ भी तो कोई काम कर सकता है।” तभी अब्बा जान आ गये, “अरे मैंने पूछा क्यों शोर हो रहा है सुबह – सुबह?”
“कुछ नहीं अब्बा जान, बस ऐसे ही। मैं आज वापस दिल्ली जाने की तैयारी कर रहा हूँ।” अहमद ने जवाब दिया। उसने जल्दी-जल्दी से सामान समेटा फिर सभी लोग उसे छोड़ने घर से बाहर आये। और उसने अपने घर वालों से विदा लिया।
उसने गांव से शहर तक का सफर ऑटो से तय किया। शहर से गोरखपुर तक का सफर बस से पूरा करने के लिए बस पर सवार हो गया। शीशे से बाहर का नज़ारा देखते हुए उन्हें अपने यादों में बसाने लगा। न जाने वो कब इनको फिर देख सकेगा, न जाने फिर कब गांव आएगा। हरे-भरे खेतों को देखते हुए वो सोचने लगा कितना मजा आता अगर शहरों में भी इस तरह की हरियाली होती। गेहूं की फसल अभी हरी थी, सरसों की फसल अब पक चुकी थी और कुछ दिनों में कटने वाली थी।
Anjaam by Sahil Hasan | Chapter 3 | आयत से अहमद की मुलाकात
वह अपनी गाँव के सोचों में गुम था कि तभी उसने एक लड़की को देखा जो बस में सबसे पीछे के सीट पर बैठी थी। वह लड़की नकाब पहने हुए थी। सिर्फ उस लड़की की आंखें दिख रही थी। उस लड़की की आंखों में नींद थी। कभी वो दाएं गिरती कभी बाएं। पास में बैठी एक दूसरी औरत के कन्धों पे उसका सिर जा गिरता, वो औरत उसे सीधा करती तो उसकी ऑंखें खुल जाती। फिर वो शीशें से बाहर की तरफ देखने की कोशिश करती, शायद ये जानने के लिए की बस कहाँ तक आ गयी है। और फिर उसकी ऑंखें बंद होने लगते।
ये देखकर अहमद के होटों पे हसीं आ गई। उस लड़की की आंखें बहुत ही खूबसूरत थे। उन्हें देखना अहमद को अच्छा लग रहा था। शायद इस लड़की की अपनी ही कोई कहानी होगी। अहमद उस लड़की को देखते हुए यही सब सोच रहा था। तभी बस का कंडक्टर आ गया और पूछा, “भाई साहब कहाँ का टिकेट लेना है?”
“मुझे गोरखपुर तक जाना है इसलिए गोरखपुर तक का टिकेट दे दीजिये।” अहमद ने कहा।
कंडक्टर ने अहमद को टिकेट दिया और आगे बढ़ गया। पूरा बस सवारियों से भरा हुआ था। कुछ लोग बीच में आने – जाने वाले रास्ते पर खड़े थे। उसी में कभी दायें कभी बाएं दबाते हुए कंडक्टर सवारियों को टिकेट दे रहा था। अहमद एक बार फिर से पीछे मुड़कर उस लड़की के तरफ देखने लगा। सभी यात्री अपने – अपने सोचों में मसरूफ थे। बस अपनी ही रफ़्तार में आगे बढे जा रही थी। अहमद उस लड़की के बारे में सोच रहा था। इसी उधेड़बुन में बस कब गोरखपुर पहुंच गई पता ही नहीं चला।
कंडक्टर ने जोर से चिल्लाकर कहा, “गोरखपुर बस स्टैंड आ गया है, अब सभी लोग बस को जल्दी से खाली कर दें।”
सभी यात्री अपना – अपना समान लेकर उतरने लगे। अहमद ने एक बार फिर उस लड़की को देखा। वो अभी भी कुछ सोयी – सी थी। वह बस की उस सीट से उठने की कोशिश कर रही थी पर नींद की वजह से शरीर साथ नहीं दे रहा था। अहमद ने उसे देखा।
लड़की के पास एक पर्स, एक छोटा बैग और एक बड़ा बैग था। अहमद को लगा कि वो बैग को उठा नहीं पाएगी। इसलिए आगे बढ़कर पूछा, “क्या मैं आपकी बैग को उठाने में मदद करूं?” लड़की ने सिर हां में हिलाया। एक तरफ का हैंडल अहमद ने और एक तरफ से उस लड़की ने पकड़ कर उठा लिए। धीरे – धीरे चलते हुए वो दोनों लोग बस से उतरे।
नीचे उतर कर एक तरफ़ खड़े हो गए। अहमद ने पूछा, “कहां जाना है?”
उस लड़की ने जवाब दिया, “लख़नऊ!”
अहमद बोला, मुझे भी लखनऊ जाना है। हम दोनों साथ में जा सकते है। फिर दोनों बैग उठाकर बस स्टैंड की ओर जाने लगे।
थोड़ा आगे जाने पर लड़की ने पूछा, “यहां से रेलवे स्टेशन कितनी दूर है?”
अहमद ने जवाब दिया, “थोड़ी दूर है यहां से।”
फिर लड़की ने कहा, “क्यों ना हम ट्रेन से चले?”
अहमद ने कहा, “हां ठीक है, ऐसा कर लेते है।”
फिर दोनों बैग लेकर रेलवे स्टेशन पहुंचे।
ये पहली बार था जब अहमद के पास कोई निश्चित प्लान नहीं था। उसने ट्रेन टिकट रिजर्व नहीं किया था, और ना ही बस टिकट। वो दोनों जाकर जनरल टिकट विंडो से थोड़ी दूर पे बैठ गए।
फिर अहमद ने पूछ, “आपका नाम क्या है?”
लड़की ने बताया, “आयत”
“आयत, ये तो बहुत ही प्यारा नाम है। तो आयत टिकट कहां का लेना है लखनऊ या किसी और जगह का?”
आयत ने कहा, “मैं तो अकबरपुर जा सकती हूं या लखनऊ या दिल्ली भी जा सकती हूं। आपको कहां जाना है?”
“मेरी चार – पांच दिन की छुट्टियाँ बाकी है। और मैं कभी अकबरपुर नहीं गया हूं और लखनऊ भी कभी देखने का मौका नहीं मिला तो मैं आपके साथ कहीं भी चल सकता हूं। अगर आपको कोई प्रॉब्लम न हो?”
आयत ने पूछा, “आपके पास रूपए हैं?”
अहमद ने कहा, “हां मेरे पास पंद्रह सौ रूपए है।”
“फिर आप दिल्ली कैसे जाएंगे अगर आप खर्च कर देंगे तो?”
देख लेंगे, कुछ जुगाड़ कर लूंगा, अहमद ने कहा।
फिर दोनों ने तय किया कि अकबरपुर चलते है। आयत ने बताया कि अकबरपुर काफ़ी प्रसिद्ध जगह है। यहां सैयद मख़दूम अशरफ़ जहांगीर अशरफी का मजार है जोकि बहुत ही बड़े पीर है। इसी को कछौछा शरीफ के नाम से भी जाना जाता है। पर ट्रेन किस रूट से जाएगी ये पता नहीं था। फिर अहमद ने टिकट लेने के लिए लगी लाइन में खड़ा हो गया।
टिकट खिड़की पर उसने टिकट देने वाली लेडी से पूछा, “मैडम अगर आप नाराज न हो तो क्या ये बताएंगी की अकबरपुर के लिए यहां से कैसे जाएंगे? या कोई ट्रेन का नाम जो वहां जाती हो?” उस लेडी ने बताया कि इसके लिए तो देर हो गया है, और अभी कोई ट्रेन वहां के लिए नहीं है और वैसे भी वहां के लिए कोई भी डायरेक्ट ट्रेन नहीं है गोरखपुर से।
उसने आकर ये बात आयत को बताया। फिर दोनों ने कुछ देर सोचने के बाद लखनऊ जाने का प्लान बनाया। अहमद ने जाकर लखनऊ के लिए दो टिकट लिया। ये जनरल डिब्बे का टिकट था।
गोरखपुर से जितनी भी ट्रेन लखनऊ या दिल्ली को जाती है वो सारी ट्रेन सवारियों से भरी होती है। जनरल डिब्बों में पैर तक रखना मुश्किल होता है। ये सारी ट्रेन बिहार से होते हुए आती हैं। बैठने के लिए जगह मिलना नामुमकिन होता है।
गोरखधाम एक ट्रेन है जो गोरखपुर से चलती है। लोग इस ट्रेन से जाने के लिए भी दूर – दूर से आते है। सुबह से ही जनरल डिब्बे में बैठने और सीट पाने के लिए कतार में खड़े हो जाते हैं। बड़ा मुश्किल हो जाता है इस ट्रेन में भी बैठकर जाना। लोग ऊपर के बर्थ, जिस पर सामान रखते है उसपर भी पांच लोग तो बैठते है। कुछ लोग कंधे पे रखने वाले रुमाल को भी एक बर्थ से दुसरे बर्थ में बांध कर उसमें बैठ जाते है। बहुत मुश्किल होता है सफ़र तय करना। ऐसा लगता है की अगर किसी तरह घर पहुँच गये तो एक बड़ी जंग तो जीत ही लिया।
कुछ लोग ट्रेन में बने वाशरूम के अन्दर बैठ जाते हैं। रेल के डिब्बे में अन्दर घुसने के लिए बने दरवाजों के पास वाले जगह पर भी बैठ जाते हैं। मतलब ये की कोई भी जगह खाली नहीं होता है। अगर आपको वाशरूम में जाना है तो बहुत ही मुश्किल होता है। लोगों के ऊपर से होते हुए जाना होता है। जिसने इस तरह कभी सफर नहीं किया है उसके लिए ये जहन्नम से भी ज्यादा मुश्किल सफर होता है। मोबाइल में समय देखा तो दिन के एक बज रहे थे। पूछताछ केंद्र से पता चला कि ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर सात से चार बजकर पैंतीस मिनट पर जायेगी।
अहमद और आयत जल्दी से प्लेटफॉर्म नंबर सात पे पहुंचे। प्लेटफॉर्म लोगों से भरा पड़ा था। हर तरफ सिर्फ लोग थे जो गोरखधाम ट्रेन के इन्तजार में थे। और लोग कतार में खड़े और कुछ लोग बैठे थे। अहमद भी उस कतार में खड़ा हो गया। वह कभी कतार में इस तरह खड़ा नहीं हुआ था। एक पल के लिए वह घबरा गया कि वह इस तरह नहीं जा पायेगा।
उसने आयत से कहा कि हम लोग बस से चलेंगे पर आयत ने कहा घबराएं नहीं हमें ट्रेन में जगह मिल जाएगी।
आयत को उसने वहीं रखी बेंच पर बैठा दिया। तभी थोड़ी देर में ट्रेन भी आकर प्लेटफॉर्म नंबर सात पर खड़ी हों गई।
कुछ देर बाद अहमद आयत के पास आया और उसने मोबाइल नंबर ले लिया कि कहीं हम खो गए तो फिर से कॉन्टैक्ट कर लेंगे।
धीरे – धीरे लोग आगे बढ़ने लगे जनरल क्लास के डिब्बे की तरफ। अहमद किसी तरह से अन्दर घुस कर दो लोगों के लिए सीट पा लिया। थोड़ी देर बाद आयत भी आकर सीट पर बैठ गई। हमारे देश में ऐसा है की जब कोई दो लोग, औरत और मर्द साथ में हो तो यही समझते है की पति – पत्नी है। लोग उन्हें घुर कर देख रहे थे पर आयत ने नकाब लगा रखा था तो चेहरा नहीं दिख रहा था।
कुछ लोगों को बैठने के लिए सीट मिल गई और कुछ लोग खड़े थे। पर अब सब कुछ स्थिर हो गया था। आयत किसी से मोबाइल पर बातों में लगी थी। अहमद बोर हो रहा था। तभी उसके ऑफिस से एक दोस्त का कॉल आ गया। वो अपने दोस्त से इंग्लिश में कुछ बातें करने लगा। कॉल डिस्कनेक्ट हुआ तब पहली बार आयत ने अहमद की तरफ थोड़ा ध्यान दिया। इंग्लिश में बात करने की वजह से आयत प्राभावित हुई थी। और उसका भी कॉल डिस्कनेक्ट हो चुका था। फिर दोनों में बातचीत शुरू हो गयी।
Anjaam by Sahil Hasan | Chapter 4 | आयत और रियाज़ की मुलाकात
ट्रेन की रफ्तार धीरे – धीरे तेज होती गई। लोग अपने – अपने दुनिया में खो गए। कुछ लोग अपनी कहानी अपने बगल में बैठे लोगों के साथ बतानी शुरु कर दी। इस तरह से बातें करते हुए सफर करना आसान हो जाता है। कोई अपनी पहली बार के सफर का अनुभव बताने लगा तो किसी का ये पहला सफर था। और वह ये बता रहा था की उसकी क्या मजबूरी है इस सफर के लिए। जितने लोग उतनी कहानियां। कितना मुश्किल हो जाता जीना अगर लोगों के पास उनकी अपनी कहानियाँ न होती।
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